खेल हो या पढ़ाई, हर कुछ उसके मकसद से इस कदर जुड़ गया है कि उसकी पहचान आर्थिक तौर पर नहीं तो वह कमजोर होता जाता है. बिहार में कबडड्ी का भी यही हाल है. यहां दर्जनों पहलवान सीनियर, जूनियर और सब जूनियर स्तर पर खेलते हैं, लेकिन इसकी परंपरा की धार कुंद सी हो गई है. शायद यही वजह है कि यहां इस खेल के प्रति जो क्रेज था वह कम हो गया है. इस खेल से जुड़े लोगों को कहना है कि खेल सिर्फ खेलने से नहीं, प्रोत्साहन और सम्मान की दरकार भी करता है. अगर यह नहीं तो खेलने का हौसला कब तक कायम रखा जा सकता है.
बिहार में कुश्ती का क्या है हाल
इन दिनों ग्लासगो में कॉमनवेल्थ गेम में सुशील की सोने की चमक से हर इंडियन को गर्व है. उन्हें राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पहलवान के रूप में जाना जाता हैं, तो एक तरफ यह सवाल भी उठता है कि आखिर बिहार की समृद्ध परंपरा में रचा-बसा कुश्ती आज कहां है. इसका जबाव जानकर निराशा हुई. बिहार में केवल एक ही रेसिडेंशियल कुश्ती अखाड़ा बेतिया के बगहा में हैं, लेकिन यहां कोच की व्यवस्था ही नहीं है. इसके कारण सभी साधन होने के बावजूद खिलाड़ी सीख नहीं पाते हैं. बिहार कुश्ती संघ के सचिव कामेश्वर सिंह ने बताया कि इस बारे में जब खेल मंत्रालय को सूचित किया गया तो उन्होंने कोच की व्यवस्था करने का आश्वासन दिया है.
रोजगार से जोड़े बिना सुधार नहीं
बिहार कुश्ती संघ के सचिव कामेश्वर सिंह का कहना है कि यहां प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, लेकिन सबसे बड़ी बाधा जॉब की है. हरियाणा या दिल्ली जैसा यहां खेल पॉलिसी नहीं है. अगर किसी को खेलने के बाद आगे कोई फ्यूचर नहीं दिखायी दे तो कैसे इस खेल से जुड़ाव होगा. यही वजह है कि बिहार में इस खेल की जो पहचान 80 के दशक में थी, वह अब वह दौर नहीं रह गया है. पहलवान के पेरेंट भी आस रखते हैं कि खेलेगा तो अपने पैर पर खड़ा होगा, लेकिन अभी तक ऐसी पॉलिसी का अभाव है. अभी सिर्फ एक परसेंट कोटा बिहार पुलिस में है. समय-दर-समय पिछड़ने का यह एक सबसे बड़ा कारण है. क्रिकेट जैसे खेल जैसा इसकी तो पहचान नहीं है.
क्या है बेहतर करने की संभावना
इस बारे में संघ के सेक्रेटरी ने कहा कि जहां तक पटना का सवाल है यहां से कुश्ती के नए खिलाड़ी आसानी से बनाये जा सकते हैं. अगर यहां के स्टेडियम में मैट की सुविधा देकर कैंप आदि का आयोजन किया जाए तो इससे इस खेल को प्रोत्साहन मिलेगा. फिलहाल यहां बीएमपी 10 ग्राउंड पर पहलवान प्रैक्टिस करते हैं. 2012 में पाटलिपुत्रा स्पोर्टस कॉम्पलेक्स में फेडरेशन कप नेशनल रेसलिंग चैम्पियनशिप का अयोजन किया गया था. इसमें सरकार का भी सहयोग था. इसमें बिहार स्टेट ने आठ मेडल जीता था. जबकि ग्रीको रोमन स्टाइल कुशती (ऐसी कुशती जो कमर से उपर खेली जाती है.) में बिहार स्टेट को सेकेंड पोजीशन मिला था.
100 रुपया है नाकाफी
इस खेल में पहलवानों की डाइट बहुत होती है. लेकिन विडंबना यह है कि इस मंहगाई के दौर में भी बिहार गवर्नमेंट की ओर से प्रति खिलाड़ी केवल 100 रुपए ही दिया जाता है, जो यह नाकाफी है. 2013-14 के फाइनेंशियल इयर में यह 50रूपया से बढ़ाकर 100 किया गया था. पहलवान इसे नाकाफी बताते हैं. यही वजह है कि पहलवानों को खाने पर बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है. एक साधारण परिवार के खिलाड़ी के लिए यह बस की बात नहीं.
प्रोफेशनली खेलने की परंपरा नहीं
अभी बिहार के 24 जिलों में कुश्ती संघ हैं, पर कमोबेश सुविधाओं का अभाव है. कहीं मैट नहीं है तो कहीं इसे प्रोफेशनली खेलने की परंपरा ही नहीं है. जैसे खगडि़या, भागलपुर और बेगूसराय में यह खेल रूरल लेवल या ग्रामीण दंगल के स्तर पर ही खेला जाता है. यहां पुरानी पद्धति (चित-पट ) पर खेला जाता है, जबकि प्रोफेशनली इसमें प्वाइंट पर खेला जाता है. इस संबंध में संघ ने प्रयास किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली.
इन जिलों में है अखाड़ा
कैमूर, बक्सर, रोहतास, गया, जहानाबाद औरंगाबाद, बेतिया, सारण, गोपालगंज, सिवान, सीतामढ़ी, दरभंगा और समस्तीपुर. अब ग्रामीण स्तर पर भी दंगल प्रतियोगिता में कमी आयी है.
हरियाणा या दिल्ली जैसी यहां खेल पॉलिसी नहीं है. अगर किसी को खेलने के बाद आगे कोई फ्यूचर नहीं दिखायी दे, तो कैसे इस खेल से जुड़ाव होगा.
-कामेश्वर सिंह, सचिव, बिहार कुश्ती संघ
बिहार में कुश्ती का क्या है हाल
इन दिनों ग्लासगो में कॉमनवेल्थ गेम में सुशील की सोने की चमक से हर इंडियन को गर्व है. उन्हें राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पहलवान के रूप में जाना जाता हैं, तो एक तरफ यह सवाल भी उठता है कि आखिर बिहार की समृद्ध परंपरा में रचा-बसा कुश्ती आज कहां है. इसका जबाव जानकर निराशा हुई. बिहार में केवल एक ही रेसिडेंशियल कुश्ती अखाड़ा बेतिया के बगहा में हैं, लेकिन यहां कोच की व्यवस्था ही नहीं है. इसके कारण सभी साधन होने के बावजूद खिलाड़ी सीख नहीं पाते हैं. बिहार कुश्ती संघ के सचिव कामेश्वर सिंह ने बताया कि इस बारे में जब खेल मंत्रालय को सूचित किया गया तो उन्होंने कोच की व्यवस्था करने का आश्वासन दिया है.
रोजगार से जोड़े बिना सुधार नहीं
बिहार कुश्ती संघ के सचिव कामेश्वर सिंह का कहना है कि यहां प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, लेकिन सबसे बड़ी बाधा जॉब की है. हरियाणा या दिल्ली जैसा यहां खेल पॉलिसी नहीं है. अगर किसी को खेलने के बाद आगे कोई फ्यूचर नहीं दिखायी दे तो कैसे इस खेल से जुड़ाव होगा. यही वजह है कि बिहार में इस खेल की जो पहचान 80 के दशक में थी, वह अब वह दौर नहीं रह गया है. पहलवान के पेरेंट भी आस रखते हैं कि खेलेगा तो अपने पैर पर खड़ा होगा, लेकिन अभी तक ऐसी पॉलिसी का अभाव है. अभी सिर्फ एक परसेंट कोटा बिहार पुलिस में है. समय-दर-समय पिछड़ने का यह एक सबसे बड़ा कारण है. क्रिकेट जैसे खेल जैसा इसकी तो पहचान नहीं है.
क्या है बेहतर करने की संभावना
इस बारे में संघ के सेक्रेटरी ने कहा कि जहां तक पटना का सवाल है यहां से कुश्ती के नए खिलाड़ी आसानी से बनाये जा सकते हैं. अगर यहां के स्टेडियम में मैट की सुविधा देकर कैंप आदि का आयोजन किया जाए तो इससे इस खेल को प्रोत्साहन मिलेगा. फिलहाल यहां बीएमपी 10 ग्राउंड पर पहलवान प्रैक्टिस करते हैं. 2012 में पाटलिपुत्रा स्पोर्टस कॉम्पलेक्स में फेडरेशन कप नेशनल रेसलिंग चैम्पियनशिप का अयोजन किया गया था. इसमें सरकार का भी सहयोग था. इसमें बिहार स्टेट ने आठ मेडल जीता था. जबकि ग्रीको रोमन स्टाइल कुशती (ऐसी कुशती जो कमर से उपर खेली जाती है.) में बिहार स्टेट को सेकेंड पोजीशन मिला था.
100 रुपया है नाकाफी
इस खेल में पहलवानों की डाइट बहुत होती है. लेकिन विडंबना यह है कि इस मंहगाई के दौर में भी बिहार गवर्नमेंट की ओर से प्रति खिलाड़ी केवल 100 रुपए ही दिया जाता है, जो यह नाकाफी है. 2013-14 के फाइनेंशियल इयर में यह 50रूपया से बढ़ाकर 100 किया गया था. पहलवान इसे नाकाफी बताते हैं. यही वजह है कि पहलवानों को खाने पर बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है. एक साधारण परिवार के खिलाड़ी के लिए यह बस की बात नहीं.
प्रोफेशनली खेलने की परंपरा नहीं
अभी बिहार के 24 जिलों में कुश्ती संघ हैं, पर कमोबेश सुविधाओं का अभाव है. कहीं मैट नहीं है तो कहीं इसे प्रोफेशनली खेलने की परंपरा ही नहीं है. जैसे खगडि़या, भागलपुर और बेगूसराय में यह खेल रूरल लेवल या ग्रामीण दंगल के स्तर पर ही खेला जाता है. यहां पुरानी पद्धति (चित-पट ) पर खेला जाता है, जबकि प्रोफेशनली इसमें प्वाइंट पर खेला जाता है. इस संबंध में संघ ने प्रयास किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली.
इन जिलों में है अखाड़ा
कैमूर, बक्सर, रोहतास, गया, जहानाबाद औरंगाबाद, बेतिया, सारण, गोपालगंज, सिवान, सीतामढ़ी, दरभंगा और समस्तीपुर. अब ग्रामीण स्तर पर भी दंगल प्रतियोगिता में कमी आयी है.
हरियाणा या दिल्ली जैसी यहां खेल पॉलिसी नहीं है. अगर किसी को खेलने के बाद आगे कोई फ्यूचर नहीं दिखायी दे, तो कैसे इस खेल से जुड़ाव होगा.
-कामेश्वर सिंह, सचिव, बिहार कुश्ती संघ
Source: Patna Local News
No comments:
Post a Comment