भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी की लोकसभा सीट को लेकर पिछले एक सप्ताह से जारी सस्पेंस अभी भी खत्म नहीं हो पाया है.
भाजपा की केन्द्रीय चुनाव समिति बुधवार रात फैसला ले
चुकी है कि उन्हें गांधीनगर से ही चुनाव लड़ना है, लेकिन आडवाणी की सुर्इ
अभी भी भोपाल पर ही अटकी हुर्इ है.
मातृ संगठन आरएसएस के परोक्ष निर्देश और पार्टी के तमाम नेताओं की मान मनौव्वल के बावजूद आडवाणी यदि भोपाल से ही चुनाव लड़ने की रट लगाए हुए हैं तो इसकी एक नहीं, कर्इ वजहें हैं.
सबसे मुख्य वजह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद हैं, जिन्हें आडवाणी का बेहद करीबी माना जाता है.
आडवाणी भी कर्इ मौकों पर शिवराज सिंह चौहान के प्रति अपने अनुराग को उजागर कर चुके हैं.
पिछले साल गोवा राष्ट्रीय कार्यकारिणी से ठीक पहले उन्होंने पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी से शिवराज सिंह चौहान की तुलना कर भारी बखेड़ा खड़ा किया था.
नजदीकी
मोदी के नाम घोषित होने के पहले आडवाणी एक नहीं कर्इ मर्तबा कह चुके हैं कि पार्टी में प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवारों की कोर्इ कमी नहीं है.
नाम लेते समय वे हर बार शिवराज सिंह का नाम लेना नहीं भूले.
स्थानीय पत्रकार राघवेन्द्र सिंह कहते हैं, ''आडवाणी को भाजपा का पितृ पुरुष माना जाता है. लंबे समय तक वे ही तय करते रहे हैं कि कौन कहां से चुनाव लडेगा, लेकिन मौजूदा घटनाक्रमों को देखकर लगता है कि वे पार्टी में अपनी उपेक्षा से दुखी हैं.''
''पार्टी के तमाम बड़े नेताओें की लोकसभा सीटों का ऐलान हो चुका है लेकिन चार सूचियों के बावजूद आडवाणी के नाम को लेकर संशय बना हुआ है. शायद इसी वजह से वे भोपाल आकर निर्णय लेने वालों तक अपनी नाराजगी पहुंचाना चाह रहे हैं.''
एक अन्य स्थानीय पत्रकार प्रकाश भटनागर कहते हैं कि आडवाणी के लिए गांधीनगर सीट भी उतनी ही सुरक्षित है जितनी भोपाल, लेकिन भोपाल आने का फैसला नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल होता तब यह मानने का आधार होता कि आडवाणी मोदी के कारण गुजरात छोड़ मध्यप्रदेश आ रहे हैं.
चौहान का निशाना
शिवराज सिंह चौहान ने लालकृष्ण आडवाणी को भोपाल से चुनाव लड़ने का न्यौता देकर एक तीर से दो निशाने साधे है.
पहला तो आडवाणी की हमदर्दी हासिल करना और दूसरा पार्टी में मौजूद अन्य वरिष्ठ और बुजुर्ग नेताओं तक यह संदेश भिजवाना कि कोर्इ और पूछे न पूछे वो हमेशा उनका सम्मान करते रहेंगे.
गौरतलब है कि पिछली बार पार्टी की एक अन्य दिग्गज नेता सुषमा स्वराज को भी मध्यप्रदेश ने एक सुरक्षित सीट मुहैया कराई थी.
यह वही सीट थी, जिस पर खुद चौहान चार बार सांसद रह चुके थे और जिसके एक एक गांव से वो वाकिफ थे.
चुनाव में विजयी होने के बाद सुषमा तो दिल्ली रवाना हो गईं, लेकिन यहां उनकी सीट का पूरा ख्याल रखा गया.
यही वजह है कि इस बार वे फिर उसी विदिशा सीट से चुनाव लड़ रही हैं.
विदिशा की तरह भोपाल लोकसभा सीट भी भाजपा के लिहाज़ से बेहद महफ़ूज़ है.
भाजपा का गढ़
यहां से पिछले सात लोकसभा चुनावों में भाजपा का कमल खिलता आया है. 1984 की इंदिरा लहर के बाद से कांग्रेस तमाम कोशिशों के बावजूद यहां से अपने किसी सांसद को दिल्ली नहीं पहुंचा पाई.
सीट पर कायस्थ, ब्राम्हण और मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं.
चूंकि भोपाल नवाबी रियासत रही है इसलिए मुस्लिमों की तादाद ठीक ठाक है. कांग्रेस ने सारे जतन किए. ब्राम्हण उम्मीदवार खड़े किए, कायस्थों को मौका दिया और मुस्लिमों को भी आजमाया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली.
भोपाल नवाब खानदान के मशहूर क्रिकेटर नावाब मंसूर अली खान पटौदी को भी कांग्रेस एक बार यहां से आजमा चुकी है.
जबकि भाजपा ने जिसे चाहा उसे जिताया. पूर्व नौकरशाह सुशीलचंद्र वर्मा से लेकर फायरब्रांड लीडर उमा भारती और संजीदा नेता कैलाश जोशी सभी को भोपाल से कामयाबी मिली.
भोपाल लोकसभा की मौजूदा आठ में से छह विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है. कांग्रेस के पास महज एक सीट है.
एक वजह यह भी
आडवाणी यदि यहां से चुनाव लड़ते हैं तब न तो उन्हें ज्यादा मेहनत करना पड़ेगी और न ही चुनाव के बाद क्षेत्र की चिंता.
आडवाणी गांधीनगर से लड़ते हैं या भोपाल से यह जल्द तय हो जाएगा, लेकिन भोपाल में उनकी उम्मीदवारी को लेकर सरगर्मी जरूर है.
बुधवार को जब उनके नाम की घोषणा भी नहीं हुई थी तभी भोपाल की सड़कों पर आडवाणी वेलकम लिखे होर्डिंग्स नजर आने लग गए थे.
रात में जब यह खबर आई कि उन्हें गांधीनगर से ही चुनाव लड़ाया जा रहा है तब जाकर होर्डिंग्स उतारे गए.
राज्य भाजपा में इस बात पर भी मंथन शुरू हो गया है कि भोपाल से अब कौन लड़ेगा.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नरेन्द्रसिंह तोमर इस बारे में चर्चा कर चुके हैं. आडवाणी के लिए भोपाल सीट छोड़ने की पेशकश करने वाले मौजूदा सांसद कैलाश जोशी भी पार्टी नेताओं से चर्चा में मशगूल हैं.
Source: Hindi News
मातृ संगठन आरएसएस के परोक्ष निर्देश और पार्टी के तमाम नेताओं की मान मनौव्वल के बावजूद आडवाणी यदि भोपाल से ही चुनाव लड़ने की रट लगाए हुए हैं तो इसकी एक नहीं, कर्इ वजहें हैं.
सबसे मुख्य वजह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद हैं, जिन्हें आडवाणी का बेहद करीबी माना जाता है.
आडवाणी भी कर्इ मौकों पर शिवराज सिंह चौहान के प्रति अपने अनुराग को उजागर कर चुके हैं.
पिछले साल गोवा राष्ट्रीय कार्यकारिणी से ठीक पहले उन्होंने पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी से शिवराज सिंह चौहान की तुलना कर भारी बखेड़ा खड़ा किया था.
नजदीकी
मोदी के नाम घोषित होने के पहले आडवाणी एक नहीं कर्इ मर्तबा कह चुके हैं कि पार्टी में प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवारों की कोर्इ कमी नहीं है.
नाम लेते समय वे हर बार शिवराज सिंह का नाम लेना नहीं भूले.
स्थानीय पत्रकार राघवेन्द्र सिंह कहते हैं, ''आडवाणी को भाजपा का पितृ पुरुष माना जाता है. लंबे समय तक वे ही तय करते रहे हैं कि कौन कहां से चुनाव लडेगा, लेकिन मौजूदा घटनाक्रमों को देखकर लगता है कि वे पार्टी में अपनी उपेक्षा से दुखी हैं.''
''पार्टी के तमाम बड़े नेताओें की लोकसभा सीटों का ऐलान हो चुका है लेकिन चार सूचियों के बावजूद आडवाणी के नाम को लेकर संशय बना हुआ है. शायद इसी वजह से वे भोपाल आकर निर्णय लेने वालों तक अपनी नाराजगी पहुंचाना चाह रहे हैं.''
एक अन्य स्थानीय पत्रकार प्रकाश भटनागर कहते हैं कि आडवाणी के लिए गांधीनगर सीट भी उतनी ही सुरक्षित है जितनी भोपाल, लेकिन भोपाल आने का फैसला नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल होता तब यह मानने का आधार होता कि आडवाणी मोदी के कारण गुजरात छोड़ मध्यप्रदेश आ रहे हैं.
चौहान का निशाना
शिवराज सिंह चौहान ने लालकृष्ण आडवाणी को भोपाल से चुनाव लड़ने का न्यौता देकर एक तीर से दो निशाने साधे है.
पहला तो आडवाणी की हमदर्दी हासिल करना और दूसरा पार्टी में मौजूद अन्य वरिष्ठ और बुजुर्ग नेताओं तक यह संदेश भिजवाना कि कोर्इ और पूछे न पूछे वो हमेशा उनका सम्मान करते रहेंगे.
गौरतलब है कि पिछली बार पार्टी की एक अन्य दिग्गज नेता सुषमा स्वराज को भी मध्यप्रदेश ने एक सुरक्षित सीट मुहैया कराई थी.
यह वही सीट थी, जिस पर खुद चौहान चार बार सांसद रह चुके थे और जिसके एक एक गांव से वो वाकिफ थे.
चुनाव में विजयी होने के बाद सुषमा तो दिल्ली रवाना हो गईं, लेकिन यहां उनकी सीट का पूरा ख्याल रखा गया.
यही वजह है कि इस बार वे फिर उसी विदिशा सीट से चुनाव लड़ रही हैं.
विदिशा की तरह भोपाल लोकसभा सीट भी भाजपा के लिहाज़ से बेहद महफ़ूज़ है.
भाजपा का गढ़
यहां से पिछले सात लोकसभा चुनावों में भाजपा का कमल खिलता आया है. 1984 की इंदिरा लहर के बाद से कांग्रेस तमाम कोशिशों के बावजूद यहां से अपने किसी सांसद को दिल्ली नहीं पहुंचा पाई.
सीट पर कायस्थ, ब्राम्हण और मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं.
चूंकि भोपाल नवाबी रियासत रही है इसलिए मुस्लिमों की तादाद ठीक ठाक है. कांग्रेस ने सारे जतन किए. ब्राम्हण उम्मीदवार खड़े किए, कायस्थों को मौका दिया और मुस्लिमों को भी आजमाया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली.
भोपाल नवाब खानदान के मशहूर क्रिकेटर नावाब मंसूर अली खान पटौदी को भी कांग्रेस एक बार यहां से आजमा चुकी है.
जबकि भाजपा ने जिसे चाहा उसे जिताया. पूर्व नौकरशाह सुशीलचंद्र वर्मा से लेकर फायरब्रांड लीडर उमा भारती और संजीदा नेता कैलाश जोशी सभी को भोपाल से कामयाबी मिली.
भोपाल लोकसभा की मौजूदा आठ में से छह विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है. कांग्रेस के पास महज एक सीट है.
एक वजह यह भी
आडवाणी यदि यहां से चुनाव लड़ते हैं तब न तो उन्हें ज्यादा मेहनत करना पड़ेगी और न ही चुनाव के बाद क्षेत्र की चिंता.
आडवाणी गांधीनगर से लड़ते हैं या भोपाल से यह जल्द तय हो जाएगा, लेकिन भोपाल में उनकी उम्मीदवारी को लेकर सरगर्मी जरूर है.
बुधवार को जब उनके नाम की घोषणा भी नहीं हुई थी तभी भोपाल की सड़कों पर आडवाणी वेलकम लिखे होर्डिंग्स नजर आने लग गए थे.
रात में जब यह खबर आई कि उन्हें गांधीनगर से ही चुनाव लड़ाया जा रहा है तब जाकर होर्डिंग्स उतारे गए.
राज्य भाजपा में इस बात पर भी मंथन शुरू हो गया है कि भोपाल से अब कौन लड़ेगा.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नरेन्द्रसिंह तोमर इस बारे में चर्चा कर चुके हैं. आडवाणी के लिए भोपाल सीट छोड़ने की पेशकश करने वाले मौजूदा सांसद कैलाश जोशी भी पार्टी नेताओं से चर्चा में मशगूल हैं.
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