उत्तर प्रदेश के मेरठ के एक निजी
विश्वविद्यालय में पढ़ रहे कुछ कश्मीरी छात्रों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का
मुक़दमा तो राज्य सरकार ने वापस ले लिया है, लेकिन इस मुद्दे ने घाटी में
एक नई बहस को जन्म दे दिया है.
भारत प्रशासित कश्मीर में अब चर्चा होने लगी
है कि क्या कश्मीर के मामले में भारत सरकार का रवैया बिना कुछ सोचे-समझे
उठाए गए क़दम जैसा होता है.
इस पूरे घटनाक्रम ने इस ओर ध्यान केंद्रित किया कि कश्मीर के मामले में जब भी पाकिस्तान को मौक़ा मिलता है, वो इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करता है.
लोग कह रहे हैं कि अगर ऐसा नहीं होता, तो पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को यह कहने की इतनी जल्दी क्या थी कि मेरठ से निकाले गए कश्मीरी छात्रों का पाकिस्तान में स्वागत है और वे वहां जाकर पढ़ाई कर सकते हैं.
हालांकि किसी ने भी पाकिस्तान के इस प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि सबको पता है कि ख़ुद पाकिस्तान में हालात कैसे हैं और वहां छात्र कितने सुरक्षित होंगे.
लेकिन इन सबके बावजूद उत्तर प्रदेश प्रशासन के ज़रिए छात्रों पर देशद्रोह का मुक़दमा किए जाने पर सभी हैरान हैं.
पाकिस्तान के समर्थन में नारा
उमर अब्दुल्ला ने अखिलेश यादव से मुक़दमा वापस लेने का अनुरोध किया था.
ग़ौरतलब है कि एशिया कप में भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान पाकिस्तान के समर्थन में नारा लगाने के आरोप में 67 कश्मीरी छात्रों को मेरठ के एक विश्वविद्यालय ने सस्पेंड कर दिया था और राज्य प्रशासन ने उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा भी दर्ज कर लिया था.
2 मार्च को इस मैच में पाकिस्तान ने भारत को हराकर फ़ाइनल में जगह बनाई थी. विश्वविद्यालय प्रशासन के अनुसार सभी 67 कश्मीरी छात्रों के ख़िलाफ़ इसलिए कार्रवाई की गई क्योंकि वे लोग नहीं बता रहे थे कि किन छात्रों ने इस तरह की हरकत की है.
मगर निकाले गए छात्रों ने ख़ुद को बेक़सूर बताते हुए कहा कि दरअसल स्थानीय छात्रों ने उन पर हमले किए क्योंकि उनकी पसंदीदा टीम (भारतीय टीम) मैच हार गई थी.
छात्र जब घाटी पहुंचे, तो सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ़्रेंस और प्रमुख विपक्षी दल पीडीपी ने इसे एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाते हुए छात्रों पर किए गए केस को 'अस्वीकार्य और अन्यायपूर्ण' क़रार दिया.
इस दौड़ में अलगाववादी गुट भी शामिल हो गए. कट्टरपंथी माने जाने वाले सैयद अली शाह गिलानी से लेकर उदारवादी माने जाने वाले मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ और यासीन मलिक तक सभी ने कश्मीरियों के ख़िलाफ़ भारत सरकार के इस रवैए को 'आपराधिक और भेदभावपूर्ण' क़रार दिया.
अनुशासनात्मक कार्रवाई
पाकिस्तान ने भी इस मौक़े का फ़ायदा उठाना चाहा.
उन्होंने लोगों को इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने का भी आह्वान किया और घाटी के कुछ इलाक़ों में कुछ प्रदर्शन भी हुए.
लेकिन मीडिया में इस पर काफ़ी चर्चा और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता मुफ़्ती सईद के अनुरोध पर प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्रालय हरकत में आया और राज्य सरकार ने देशद्रोह का मुक़दमा वापस ले लिया.
ठीक इसी तरह की घटना में शनिवार को ग्रेटर नोएडा स्थित एक अन्य निजी विश्वविद्यालय, शारदा विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले कुछ कश्मीरी छात्रों के ख़िलाफ़ भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने अनुशासनात्मक कार्रवाई की है.
हालांकि इस मसले को वक़्ती तौर पर सुलझा लिया गया है, पर इस घटना ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है जिस पर भारत, पाकिस्तान और कश्मीर सभी को ग़ौर से सोचना चाहिए.
अगर विश्वविद्यालय प्रशासन ग़लत नहीं कह रहे हैं और कुछ कश्मीरी छात्रों ने सचमुच पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के समर्थन में नारे लगाए तो उन्हें ऐसा करने से परहेज़ करना चाहिए था और उनके ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए थी.
भावनाओं का ख़्याल
अली शाह गिलानी और दूसरे अलगाववादियों ने भी इसकी कड़ी निंदा की थी.
किसी क्रिकेट टीम (पाकिस्तान) का समर्थन करने से किसी देश (भारत) की सुरक्षा और संप्रभुता को कोई ख़तरा नहीं होता, लेकिन बड़ी सीधी सी बात यह है कि दूसरों की भावनाओं का ख़्याल नहीं रखना एक ऐसा माहौल पैदा करता है जो किसी भी हालत में एक शैक्षणिक संस्थान के लिए सही नहीं.
लेकिन इसके साथ ही छात्रों पर देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया जाना भी उतना ही ग़ैर-ज़रूरी और अन्यायपूर्ण था. इस घटना से एक बात और पता चलती है कि कश्मीर से जुड़े किसी भी मामले में भारत सरकार कितना असुरक्षित महसूस करने लगती है.
राज्य सरकार की कार्रवाई भी इस ओर इशारा करती है कि कश्मीरियों और भारत के दूसरे हिस्सों में रहने वालों की सोच में कितना फ़र्क़ है. प्रशासन का रवैया उसी पुरानी सोच को दोहरता है कि 'सभी कश्मीरी शक के घेरे में हैं.'
इस तरह की घटनाओं की एक वजह इस तरह की सोच भी है.
इस पूरे मामले में पाकिस्तान की प्रतिक्रिया की बात करें, तो यह यही दर्शाता है कि पाकिस्तान कश्मीर के मामले में राजनीतिक लाभ उठाने के किसी भी मौक़े को गंवाना नहीं चाहता.
इस पूरे घटनाक्रम ने इस ओर ध्यान केंद्रित किया कि कश्मीर के मामले में जब भी पाकिस्तान को मौक़ा मिलता है, वो इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करता है.
लोग कह रहे हैं कि अगर ऐसा नहीं होता, तो पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय को यह कहने की इतनी जल्दी क्या थी कि मेरठ से निकाले गए कश्मीरी छात्रों का पाकिस्तान में स्वागत है और वे वहां जाकर पढ़ाई कर सकते हैं.
हालांकि किसी ने भी पाकिस्तान के इस प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि सबको पता है कि ख़ुद पाकिस्तान में हालात कैसे हैं और वहां छात्र कितने सुरक्षित होंगे.
लेकिन इन सबके बावजूद उत्तर प्रदेश प्रशासन के ज़रिए छात्रों पर देशद्रोह का मुक़दमा किए जाने पर सभी हैरान हैं.
पाकिस्तान के समर्थन में नारा
उमर अब्दुल्ला ने अखिलेश यादव से मुक़दमा वापस लेने का अनुरोध किया था.
ग़ौरतलब है कि एशिया कप में भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान पाकिस्तान के समर्थन में नारा लगाने के आरोप में 67 कश्मीरी छात्रों को मेरठ के एक विश्वविद्यालय ने सस्पेंड कर दिया था और राज्य प्रशासन ने उनके ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा भी दर्ज कर लिया था.
2 मार्च को इस मैच में पाकिस्तान ने भारत को हराकर फ़ाइनल में जगह बनाई थी. विश्वविद्यालय प्रशासन के अनुसार सभी 67 कश्मीरी छात्रों के ख़िलाफ़ इसलिए कार्रवाई की गई क्योंकि वे लोग नहीं बता रहे थे कि किन छात्रों ने इस तरह की हरकत की है.
मगर निकाले गए छात्रों ने ख़ुद को बेक़सूर बताते हुए कहा कि दरअसल स्थानीय छात्रों ने उन पर हमले किए क्योंकि उनकी पसंदीदा टीम (भारतीय टीम) मैच हार गई थी.
छात्र जब घाटी पहुंचे, तो सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ़्रेंस और प्रमुख विपक्षी दल पीडीपी ने इसे एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाते हुए छात्रों पर किए गए केस को 'अस्वीकार्य और अन्यायपूर्ण' क़रार दिया.
इस दौड़ में अलगाववादी गुट भी शामिल हो गए. कट्टरपंथी माने जाने वाले सैयद अली शाह गिलानी से लेकर उदारवादी माने जाने वाले मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ और यासीन मलिक तक सभी ने कश्मीरियों के ख़िलाफ़ भारत सरकार के इस रवैए को 'आपराधिक और भेदभावपूर्ण' क़रार दिया.
अनुशासनात्मक कार्रवाई
पाकिस्तान ने भी इस मौक़े का फ़ायदा उठाना चाहा.
उन्होंने लोगों को इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने का भी आह्वान किया और घाटी के कुछ इलाक़ों में कुछ प्रदर्शन भी हुए.
लेकिन मीडिया में इस पर काफ़ी चर्चा और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता मुफ़्ती सईद के अनुरोध पर प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्रालय हरकत में आया और राज्य सरकार ने देशद्रोह का मुक़दमा वापस ले लिया.
ठीक इसी तरह की घटना में शनिवार को ग्रेटर नोएडा स्थित एक अन्य निजी विश्वविद्यालय, शारदा विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले कुछ कश्मीरी छात्रों के ख़िलाफ़ भी विश्वविद्यालय प्रशासन ने अनुशासनात्मक कार्रवाई की है.
हालांकि इस मसले को वक़्ती तौर पर सुलझा लिया गया है, पर इस घटना ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है जिस पर भारत, पाकिस्तान और कश्मीर सभी को ग़ौर से सोचना चाहिए.
अगर विश्वविद्यालय प्रशासन ग़लत नहीं कह रहे हैं और कुछ कश्मीरी छात्रों ने सचमुच पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के समर्थन में नारे लगाए तो उन्हें ऐसा करने से परहेज़ करना चाहिए था और उनके ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए थी.
भावनाओं का ख़्याल
अली शाह गिलानी और दूसरे अलगाववादियों ने भी इसकी कड़ी निंदा की थी.
किसी क्रिकेट टीम (पाकिस्तान) का समर्थन करने से किसी देश (भारत) की सुरक्षा और संप्रभुता को कोई ख़तरा नहीं होता, लेकिन बड़ी सीधी सी बात यह है कि दूसरों की भावनाओं का ख़्याल नहीं रखना एक ऐसा माहौल पैदा करता है जो किसी भी हालत में एक शैक्षणिक संस्थान के लिए सही नहीं.
लेकिन इसके साथ ही छात्रों पर देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया जाना भी उतना ही ग़ैर-ज़रूरी और अन्यायपूर्ण था. इस घटना से एक बात और पता चलती है कि कश्मीर से जुड़े किसी भी मामले में भारत सरकार कितना असुरक्षित महसूस करने लगती है.
राज्य सरकार की कार्रवाई भी इस ओर इशारा करती है कि कश्मीरियों और भारत के दूसरे हिस्सों में रहने वालों की सोच में कितना फ़र्क़ है. प्रशासन का रवैया उसी पुरानी सोच को दोहरता है कि 'सभी कश्मीरी शक के घेरे में हैं.'
इस तरह की घटनाओं की एक वजह इस तरह की सोच भी है.
इस पूरे मामले में पाकिस्तान की प्रतिक्रिया की बात करें, तो यह यही दर्शाता है कि पाकिस्तान कश्मीर के मामले में राजनीतिक लाभ उठाने के किसी भी मौक़े को गंवाना नहीं चाहता.
Source: Hindi News
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