इन दिनों प्राय: प्रेम का अर्थ लोभ, स्वार्थ, कामना और वासना से लगाया जाता है। यह कोई प्रेम नहीं है, यह तो कुछ पाने की इच्छा है और इच्छा तो अनंत होती है। इसकी पूर्ति संभव नहीं है, लेकिन प्रेम तो शुरू भी है और अंत भी। कहीं कोई विराम नहीं है, अतिरेक नहीं है। इसलिए प्रेम कभी भी मस्तिष्क से नहीं किया जाता, चैतन्यमन प्रेम नहीं कर सकता। हृदय प्रेम कर सकता है, भक्ति कर सकता है।
प्रेम करने वाला पतंगा दीपक की लौ में विसर्जित हो सकता है, उसे होश कहां है कि दीपक की लौ में वह जल जाएगा। ज्यों ही जलने का भय मन में आया, तो प्रेम छूट गया। लोग प्रेम को वासना मानने की भूल करते हैं, लेकिन वहां प्रेम जैसा कुछ नहीं है, वहां कहीं न कहीं वासना है, स्वार्थ है और कुछ पाने की इच्छा है। इच्छा के आते ही प्रेम तो नष्ट हो गया। प्रेम में इच्छा कैसे हो सकती है, भक्ति में भी अगर प्रभु को पाने की कामना है, तो वह भक्ति नहीं है, वह व्यापार है। प्रभु को पाने की कामना व्यापार है। आप प्रभु से इसलिए प्रेम करते हैं कि आपको प्रभु का आशीर्वाद मिले। प्रेमी किसी को पाना चाहता है तो यह उसका स्वार्थ है।
Source: Daily Horoscope 2015
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