Sunday, January 11, 2015

Continuity of progress is not an event, but a possibility of moving

प्रगति का अर्थ है-नैतिक प्रगति। पाश्चात्य दार्शनिक जॉर्ज हीगल का 'प्रगति-सिद्धांतÓ भी प्रगति की नैतिकता की ओर संकेत करता है। सामान्यत: लोग प्रगति का आकलन करने के लिए दो मानदंड निश्चित करते हैं-सुख और श्रेय।

सुखवादियों का तर्क है कि यदि आज का मनुष्य पुराने जमाने के मनुष्य से अधिक सुखी है, तो अवश्य नैतिक प्रगति हुई है। यह आंशिक प्रगति है। इसे संपूर्ण प्रगति मान लेना भ्रम है। श्रेय व्यापक है, जिसके अंतर्गत समग्र विकास शामिल है। सुख भी श्रेय है और दुख भी। सत्कर्म करते समय दुख का वरण करना श्रेयष्कर है। इसी संदर्भ में सुख भी श्रेय बनता है। जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम कहता है कि वस्तुएं स्वभावत: नीचे गिरती हैं वैसे ही प्रगति कुदरत के नियमों के अनुसार ऊध्र्वगामी है। इतना ही पर्याप्त नहीं है कि अतीत में प्रगति हुई है, बल्कि वर्तमान में भी प्रगति होगी।

नैतिक प्रगति का इतिहास है कि या तो आगे बढ़ो या मिटने के लिए तैयार रहो। प्रगति की निरंतरता एक घटना नहीं है, बल्कि आगे बढऩे की एक संभावना है। यदि ऐसा नहीं होता तो मानना पड़ेगा कि नैतिक अभ्यास निर्थक है। नैतिक साधना को निस्सार कहना नैतिकता का ही उन्मूलन है। पतंजलि ने योगसूत्र में लिखा है कि दीर्घकाल तक श्रद्धापूर्वक निरंतर अभ्यास करने से (ईश्वर) का साक्षात्कार होता है। सहज समाधि के बारे में कबीर का अनुभव है कि नैतिक आदर्श की उपलब्धि धीरे-धीरे होती है। गीता का मत है, ''धैर्य से धारण की हुई बुद्धि के निर्देशन में भोग से त्याग की ओर बढऩा चाहिए और मन को आत्मा में स्थिर करके अन्य किसी वस्तु का चिंतन नहीं करना चाहिए।

No comments:

Post a Comment