Wednesday, February 5, 2014

148 Maruti Employees In Prison From Last One And A Half Year


दो क़तारों में चलते कुछ 20-25 लोग, मारुति सुज़ूकी वर्कर्स यूनियन का एक बड़ा बैनर, आस-पास से गुज़रती कारों से कौतूहल से देखते ड्राइवर और मीडिया की गुम सुर्खियां.
कुछ यही देखने को मिला जब मैं गुड़गांव पहुंची मारुति के बर्ख़ास्त कर्मचारियों और उनके परिवारों की पदयात्रा में. अक्तूबर 2011 में इन्हीं कर्मचारियों ने जब मारुति के मानेसर प्लांट में हड़ताल की थी तो हर जगह इनकी चर्चा थी. हौसला ऐसा था कि प्लांट के अंदर ही मज़दूर एक महीने तक हड़ताल पर बैठे थे.

पर फिर जुलाई 2012 में प्लांट के परिसर में हिंसक झड़पें हुईं, जिनमें एक मैनेजर की मौत हो गई. इन आरोपों में 148 कर्मचारी गिरफ़्तार हो गए और 2,300 बर्ख़ास्त कर दिए गए.

मुक़दमा चल रहा है. गिरफ़्तार हुए कर्मचारियों की पिछले डेढ़ साल में ज़मानत नहीं हुई और बर्ख़ास्त हुए लोगों का कहना है कि अब गुड़गांव-मानेसर इलाके में गाड़ियां और उसके कल-पुर्ज़े बनाने वाली कंपनियां उन्हें नौकरी नहीं देतीं.

सुनील भी बेरोज़गार हुए, अब पिछले डेढ़ साल से गिरफ़्तार कर्मचारियों के केस लड़ रहे हैं और कंपनी और सरकार के साथ बातचीत की कोशिश में प्रदर्शन करते रहे हैं. वह कहते हैं, "कोई ये नहीं समझता कि मज़दूर कोई ऐसा काम नहीं करेगा जिससे वो सड़कों पर आ जाए और उसके परिवार की बुरी हालत हो जाए, सब समझते हैं कि प्लांट में जो हुआ वो हमारी वजह से हुआ, इसलिए यहां हमें कोई काम नहीं देना चाहता."

कुछ भी नहीं बदला?


पिछले डेढ़ साल में धीमे हुए मारुति के मज़दूर आंदोलन ने उससे पहले इलाके में बहुत असर डाला था. उनके समर्थन में पहली बार इलाके की दस से ज़्यादा कंपनियों के मज़दूर संघ एक साथ एक दिन की हड़ताल पर गए थे.

मारुति के अलग-अलग प्लांट्स के मज़दूर भी समर्थन में साथ आ गए थे. साल 2009 में स्पेयर पार्ट बनाने वाली रिको कंपनी में मज़दूर संघ की नाकाम हड़ताल के बाद मारुति के कर्मचारियों ने अचानक इलाके की फ़िज़ा बदल दी थी.

अब हवा ने फिर अपना रुख़ मोड़ा है. अमित ने 'बदलते प्रोडक्शन प्रोसेसेज़ के मज़दूरों पर असर' विषय पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध किया है.

अमित कहते हैं, "मारुति का मज़दूर संघ पहली बार इलाके में स्थाई और कॉन्ट्रैक्ट यानि ठेके पर काम कर रहे मज़दूरों को साथ लाया. काम की बेहतर परिस्थितियों की मांग की और यूनियन बनाने के हक़ की बात उठाई पर जुलाई की हिंसा के बाद उनकी ताकत टूट गई है क्योंकि इस घटना ने मज़दूरों को सीधा कंपनी के सामने खड़ा कर दिया. मुकाबले के इस स्तर पर बाकी कंपनियों के मज़दूर संघ समर्थन से पीछे हट गए."

ठेका मज़दूर


अमित के मुताबिक पिछले डेढ़ साल में मारुति और होंडा जैसी बड़ी कंपनियों ने परमानेन्ट मज़दूरों के वेतन तो बढ़ाए हैं लेकिन इसने मज़दूरों को और बांटा है. एक तरफ 40,000 रुपए प्रति माह तक की तनख़्वाह वाले थोड़े से स्थाई मज़दूर और दूसरी ओर 15,000 रुपए प्रति माह की तनख़्वाह वाले अस्थाई मज़दूर.

यूनियन बनाने का अधिकार सिर्फ़ स्थाई मज़दूरों को ही होता है. साथ ही काम की परिस्थितियां भी नहीं बदली हैं. बस फ़र्क इतना कि ठेका मज़दूर अब ठेकेदार नहीं कंपनी नियुक्त करती है. अमित के मुताबिक जब तक स्थाई और ठेका मज़दूर साथ नहीं आते, कोई आंदोलन बदलाव नहीं ला पाएगा.

मारुति में सुनील की नौकरी स्थाई थी. ठेका मज़दूरों के लिए आवाज़ उठाने में वह भी शामिल थे. जिन 2300 लोगों की नौकरी गई उनमें से 1800 ठेके पर थे, अब उनका कोई अता-पता नहीं. अस्थाई नौकरी वाले गुमनाम नाम.

शहर की लड़ाई


ओमपति का बेटा जिया लाल भी मारुति के साथ स्थाई नौकरी कर रहा था. अब वह जुलाई की हिंसा के आरोप में जेल में है. हरियाणा के ढक्कल की रहने वाली ओमपति अपने जैसे और परिवारों के साथ कैथल से दिल्ली की पदयात्रा कर रही हैं. पदयात्रा अब दिल्ली पहुंच रही है.

कैथल, वो शहर है जहां हरियाणा के उद्योग मंत्री का घर है और दिल्ली वो शहर जहां देश की सरकार काम करती है. पदयात्रा की उम्मीद है चुनाव से ठीक पहले सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने की और ओमपति की उम्मीद... वो कहती हैं, "बस मेरा बेटा जेल से बाहर आ जाए, हम मज़दूरी करवा लेंगे, वापस शहर नहीं भेजेंगे और कुछ नहीं चाहिए."

ओमपति के पति और छोटा बेटा दिहाड़ी मज़दूर हैं. हरियाणा के ढक्कल गांव की रहने वाली ओम पति के घर में जिया लाल की पत्नी और उसका दो साल का बच्चा भी है. बेटे को जेल में आकर मिलने का ख़र्च उठाने के पैसे अब नहीं हैं. वह कहती हैं, "गांव से शहर पहुंचने की लड़ाई जीत ली पर शहर की अपनी लड़ाई हार गया. अब तो उसे लौटना ही होगा."

Source: Hindi News

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