मोक्ष नगरी काशी में मुक्ति के लिए तारक मंत्र देने वाले देवाधिदेव के ही दरबार की दीवारें कमजोर हो गईं। महारानी अहिल्याबाई द्वारा बनवाए गए वही शिखर जिनपर महाराजा रणजीत सिंह ने 880 किलो सोना मढ़वाया। आज शेष शिखरों पर नाम मात्र सोना चढ़वाने में प्रशासन की सांस फूली जा रही है। इसके लिए दीवारों की मजबूती परखी जा रही है।
इसके लिए चार माह पहले रुड़की की संस्था सीबीआरआइ को जिम्मेदारी दी गई लेकिन रिपोर्ट का अब तक इंतजार है। गौर करने की बात यह कि आखिर यह स्थित आई ही क्यों। वर्ष 1983 में दुस्साहसिक चोरी के बाद महंती परंपरा खत्म कर दी गई। काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 के तहत अधिग्रहण कर निगरानी के लिए न्यास का गठन कर दिया गया। साथ ही व्यवस्थापन के लिए कार्यपालक समिति बना दी गई। तर्क हो सकता है कि सुरक्षा या संरक्षा का भला भोले भाले पुरोहितों को क्या ज्ञान लेकिन गौर करने की बात यह कि विशेषीकृत विभाग व विशेषज्ञों की टीम के बाद भी बिना समझे-बुझे एक दशक पहले रासायनिक केमिकल दीवार पर पोत दिए गए। सैंड स्टोन जिसे मंदिर की दीवारें बनी हैं, वह पोरस होता है। इस कारण वह कैपिलरी एक्शन के कारण जमीन से पानी सोख लेता है। घुलनशील लवण भी इसमें साथ आते हैं जब इसका वाष्पीकरण होता है पानी तो उड़ जाता है लेकिन लवण रह जाता है। यह बरसात होने पर उसमें घुलकर दीवारों से बाहर आता है लेकिन एनामिल पेंट पोताई के कारण वाष्पीकरण बंद हो गया और लवण उसमें ही जमने लगे।
लिहाजा पत्थरों का क्षरण और पपड़ी रूप में गिरने लगी। बाद में एनामिल पेंट हटाया गया लेकिन इसका भी दुष्प्रभाव दीवारों को झेलना पड़ा। वास्तव में समय रहते मंदिर को धरोहर घोषित कर संरक्षित कर लिया जाता तो हालत यहां तक आती ही नहीं। अन्य संरक्षित स्थलों की तरह इस मंदिर में निर्माण कार्य उसके मुताबिक ही किए जाते।
एएसआइ जागे तब बात बढ़े आगे- प्राचीन देवालयों, स्मारकों, भवनों व स्थलों को धरोहर के रूप में संरक्षित करने के लिए प्रदेश में राज्य पुरातत्व विभाग तो केंद्र में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) है। बनारस में सारनाथ उसके ही अधीन संरक्षित है। इसके अलावा इस संगठन ने कई मंदिरों, मकबरों, स्थलों व कला, श्रृंगार व सामरिक सामग्रियों को प्राचीन संस्मारक और पुरातत्वीय स्थल तथा अवशेष अधिनियम 1958 के तहत राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है। इसके जरिए संबंधित स्थलों को संरक्षित कर मूल रूप में बरकरार रखा गया है। इस तरह की व्यवस्था होने के बाद ही विश्व धरोहर के लिए यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल ऐंड कल्चरल आर्गनाइजेशन (यूनेस्को) को प्रस्ताव भेजा जा सकेगा।
इसके लिए चार माह पहले रुड़की की संस्था सीबीआरआइ को जिम्मेदारी दी गई लेकिन रिपोर्ट का अब तक इंतजार है। गौर करने की बात यह कि आखिर यह स्थित आई ही क्यों। वर्ष 1983 में दुस्साहसिक चोरी के बाद महंती परंपरा खत्म कर दी गई। काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 के तहत अधिग्रहण कर निगरानी के लिए न्यास का गठन कर दिया गया। साथ ही व्यवस्थापन के लिए कार्यपालक समिति बना दी गई। तर्क हो सकता है कि सुरक्षा या संरक्षा का भला भोले भाले पुरोहितों को क्या ज्ञान लेकिन गौर करने की बात यह कि विशेषीकृत विभाग व विशेषज्ञों की टीम के बाद भी बिना समझे-बुझे एक दशक पहले रासायनिक केमिकल दीवार पर पोत दिए गए। सैंड स्टोन जिसे मंदिर की दीवारें बनी हैं, वह पोरस होता है। इस कारण वह कैपिलरी एक्शन के कारण जमीन से पानी सोख लेता है। घुलनशील लवण भी इसमें साथ आते हैं जब इसका वाष्पीकरण होता है पानी तो उड़ जाता है लेकिन लवण रह जाता है। यह बरसात होने पर उसमें घुलकर दीवारों से बाहर आता है लेकिन एनामिल पेंट पोताई के कारण वाष्पीकरण बंद हो गया और लवण उसमें ही जमने लगे।
लिहाजा पत्थरों का क्षरण और पपड़ी रूप में गिरने लगी। बाद में एनामिल पेंट हटाया गया लेकिन इसका भी दुष्प्रभाव दीवारों को झेलना पड़ा। वास्तव में समय रहते मंदिर को धरोहर घोषित कर संरक्षित कर लिया जाता तो हालत यहां तक आती ही नहीं। अन्य संरक्षित स्थलों की तरह इस मंदिर में निर्माण कार्य उसके मुताबिक ही किए जाते।
एएसआइ जागे तब बात बढ़े आगे- प्राचीन देवालयों, स्मारकों, भवनों व स्थलों को धरोहर के रूप में संरक्षित करने के लिए प्रदेश में राज्य पुरातत्व विभाग तो केंद्र में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) है। बनारस में सारनाथ उसके ही अधीन संरक्षित है। इसके अलावा इस संगठन ने कई मंदिरों, मकबरों, स्थलों व कला, श्रृंगार व सामरिक सामग्रियों को प्राचीन संस्मारक और पुरातत्वीय स्थल तथा अवशेष अधिनियम 1958 के तहत राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है। इसके जरिए संबंधित स्थलों को संरक्षित कर मूल रूप में बरकरार रखा गया है। इस तरह की व्यवस्था होने के बाद ही विश्व धरोहर के लिए यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल ऐंड कल्चरल आर्गनाइजेशन (यूनेस्को) को प्रस्ताव भेजा जा सकेगा।
Source: Rashifal 2015
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