Tuesday, December 16, 2014

Life and death is in the hands of God

जीवन और मृत्यु परमात्मा के हाथ में है। जीव को न स्वयं जन्म चुनने का अधिकार है और न मृत्यु प्राप्त करने का अधिकार है। जीव केवल जी सकता है, जीवन पर उसका कोई अधिकार नहीं है और जब मृत्यु का काल आता है, तो परमात्मा उसे अपने हाथों मृत्यु नहीं देता। वह जीव को स्वयं ऐसी प्रेरणा दे देता है कि वह स्वयं अपने आचरण से अपने व्यवहार से जीवन को नष्ट कर देता है।

जब जीवन का अंत काल आता है तो उसकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। वह अच्छे-बुरे का विचार करना छोड़ देता है। अच्छा आचरण करना छोड़ देता है, उसके शरीर से तेज नष्ट हो जाता है, शक्ति क्षीण हो जाती है और विचार स्थिर नहीं रह जाता। वह स्वयं ऐसा आचरण करने लगता है कि उसका जीवन अशांत हो जाए।

देवताओं को पराजित करने वाले, काल को पछाडऩे वाले रावण का जब अंतकाल आया, तो उसने नैतिक धर्म छोड़ दिया। उसका बल नष्ट हो गया, बुद्धि और विचार क्षीण हो गया और वह काल के चंगुल में फंस गया। परमात्मा किसी के नाश का भागीदार नहीं बनता। वह किसी का डंडे से सिर नहीं फोड़ता, लेकिन मनुष्य स्वयं ऐसा काम करने लगता है कि वह षड्विकारों से ग्रसित हो जाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के नशों, जुआ और व्यभिचार में फंसकर वह अपना नाश करने लगता है। एक प्रकार से वह मृत्यु का मार्ग प्रशस्त कर लेता है और मृत्यु के आने की प्रतीक्षा करने लगता है। मनुष्य स्वयं अपने कार्यो और विचारों से अनैतिक कार्य करके जीवन को नष्ट कर लेता है। ईश्वर ने हमें जीवन वरदान-स्वरूप दिया है। इस जीवन को पाने के लिए हमने ईश्वर की लाखों बार मिन्नतें कीं, प्रार्थनाएं कीं। तब यह जीवन इसलिए मिला कि हम अपने कार्यो और विचारों से परमात्मा की सृष्टि से कण-कण को प्यार कर सकें और प्रकृति के अमृत कण को पीकर जीवन को सार्थक कर सकें। साधक जब तक इस जीवन को वरदान समझता है, परमात्मा का आशीर्वाद समझता है, तब तक परमात्मा का स्नेह उसे मिलता रहता है, लेकिन, ज्योंही वह जीवन को अभिशाप समझने लगता है, तो उसका सारा जीवन नर्क बन जाता है। जीवन को हम किस रूप में लेते हैं, यह हमारे अपने हाथ की बात है।

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